
हमें गर्व है कि हम उस भारत देश के नागरिक हैं जो करुणा और दया का देश है, अहिंसा जिसकी पहचान है। विश्व में केवल भारत ने ही "जियो
और जीने दो" का संदेश दिया है। हर वर्ष जब पर्यूषण-पर्व आता है तो वह इस बात की
याद दिलाता है कि हम प्रकृति की गोद में खेलते सहस्त्रों मूक प्राणियों की भी रक्षा
करें। लेकिन हमारे देश की सरकार क्या करती है, इस बारे में सोचने पर असीम वेदना
होती है।
क्यों जरूरी है माँस निर्यात?
विडंबना यह है कि भारत सरकार अपने यहाँ के पशुओं का माँस हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान
को भी निर्यात करने से नहीं चूकती। पाकिस्तान वह पड़ोसी देश है जो हम पर न केवल हमले
करता है, वरन् आतंकवाद को भारत में प्रायोजित करने वाला प्रमुखतम
देश है। भारत से दुश्मनी निकालने के लिए वह कभी संसद पर हमला करवाता है तो कभी मुम्बई
में ताज पर। पाकिस्तान वह सब कुछ करने के लिए तैयार रहता है जिससे भारत की सुरक्षा
में सेंध लगती रहे। वर्ष में शायद ही कोई दिन जाता होगा जब हम पाकिस्तान के अत्याचारों
को नहीं सहते होंगे।
दुनिया के धनी देश भारत को सबसे बड़ा माँस निर्यातक देश बनाने में जुटे हुए हैं।
भारत के कृषि मंत्री का मानना है कि अन्य वस्तुओं के उत्पादन में बहुत खर्च आता है, लेकिन माँस एक ऐसा व्यापार है जिसमें हमारा कुछ भी खर्च नहीं
होता है। उसे बूचड़खाने में भेजने की देर है बस, फिर तो डॉलर, यूरो और रुपयों से आपकी झोली भर
जाएगी। चूंकि पशु का केवल माँस ही नहीं बिकता है बल्कि उसकी खाल, बाल, हड्डियां, आतें, खुर, सींग और चर्बी सभी बाजार में ऊंचे दामों पर बिकते हैं। मुम्बई
के एक बड़े माँस निर्यातक के अनुसार, विपुल संख्या में पशुधन भारत के
लिए पेट्रोल का कुआं है। जब चाहो उसका उपयोग करो।
पशु हमारे-पेट पाकिस्तानी
भारत सरकार इसी का अनुसरण कर रही है। वह धड़ल्ले से माँस का निर्यात करती है और
अपनी तिजोरी को पैसों से छलका देती है। यहाँ तक कि वह अपने शत्रु देश पाकिस्तान की
जीभ पर भी भारतीय पशुओं का "स्वादिष्ट" माँस रखने से परहेज नहीं कर रही है।
इस समय दुनिया के 20 ऐसे देश हैं जिन्हें वह नियमित रूप से माँस की आपूर्ति करती है।
इनमें पाकिस्तान का नाम भी शामिल है। सरकारी आंकड़े बतलाते हैं कि 2006-2007 में भारत
ने पाकिस्तान को 25,606.38 मीट्रिक टन, 2007-2008 में 9,947.68 मीट्रिक
टन और 2008-2009 में 2789.37 मीट्रिक टन माँस की आपूर्ति की थी। इसके बदले में भारत
सरकार को क्रमश: 13,309.63, 6125.58 एवं 1,743.53 लाख रुपए
की आय हुई। संक्षेप में कहा जाए तो 38343.43 टन माँस के बदले भारत सरकार को 21,178.74
लाख की कमाई हुई। भारत की जागरूक जनता को इस पर विचार करना चाहिए कि कितने सस्ते दामों
में हमारा पशु धन हमारे शत्रु देश का भोजन बन रहा है।
हम कसाई बन गए?
भारत से माँस को निर्यात किए जाने वाले ऑंकड़ों पर जब विचार किया जाता है तो ऐसा
महसूस होता है कि भारत दुनिया का अव्वल नम्बर का कसाई बन गया है। जिस देश में इतनी
हिंसा फैलेगी तो फिर वहाँ आतंकवाद नहीं पनपेगा तो और क्या होगा। भारत सरकार अपनी भावी
पीढ़ी को क्या संदेश दे रही है इससे स्पष्ट पता चल जाता है। संयुक्त अरब अमीरात एक
ऐसा देश है जिसे सबसे अधिक माँस का निर्यात पिछले तीन वर्षों में किया गया है।
2006 में 29890 मीट्रिक टन, 2007 में 26,212 मीट्रिक टन और 2008 में 15648 मीट्रिक टन माँस का निर्यात किया गया। इससे भारत को कुल 58,361 लाख रुपए की कमाई हुई थी। भारत से माँस खरीदने वाले प्रमुख
देशों में मिस्त्र, मलेशिया, कुवैत, सऊदी अरब अमीरात, जोर्डन, ईरान, ओमान, लेबनॉन, पाकिस्तान और अजरबैजान मुस्लिम राष्ट्र हैं, जबकि वियतनाम, फिलिपाइंस, अंगोला, जोर्जिया, सेनेगल, घाना और आइवरी कोस्ट गैर मुस्लिम
राष्ट्र हैं। इतना ही नहीं भारत में जब भी किसी अन्य देश से "माँस- निर्यात"
की मांग आती है, चाहे वह पश्चिम का ही देश हो, तो भारत सदा अपने पशुओं का कत्ल कर उनके माँस को निर्यात करने
के लिए उतावला रहता है। भारत सरकार इसे विदेशी मुद्रा कमाने के लिए आवश्यक मानती है।
लेकिन क्या किसी का रक्त और किसी का माँस बेचकर दुनिया का भला किया जा सकता है। यदि
यह आवश्यक है तो फिर इंसान के रक्त का व्यापार सरकार क्यों शुरू नहीं कर देती?
भारत से विदेशों को निर्यातित माँस में भैंसों का माँस अधिक होता है। माँस के दलालों
का कहना है कि भारतीय पशु जंगल में चरते हैं, इसलिए उसका माँस अधिक पौष्टिक और
स्वादिष्ट होता है। इनमें केवल भैंस का ही नहीं बल्कि गाय और बैल का माँस भी शामिल
है। आज भारत के बकरों और भैंस के माँस की भी दुनिया में बहुत बड़ी मांग है। इकोनोमिक
टाइम्स में प्रकाशित समाचार के अनुसार, सरकार की अदूरदर्शी नीतियों से
माँस की मांग में भारी वृद्धि हुई है।
नई दिल्ली स्थित डेयरी के एक अधिकारी ने बतलाया कि अप्रैल 2008 से 2009 के बीच
भैंस के माँस निर्यात में पिछले वर्ष की तुलना में 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जब
चारा और अन्य वस्तु मंहगी होती है तो भैंस का मालिक उसे सीधे कत्लखाने भेज देता है।
लेकिन दिल्ली पशु विश्वविद्यालय के डॉक्टर विनोद कुमार ने इस सम्बंध में लम्बी खोज
के बाद कुछ चमत्कार किए हैं। मेरठ के पास उनका एक "फॉर्म हाउस" है जहाँ वे
उन भैंसों को खरीदकर ले आते हैं जो समय पर ब्याती नहीं हैं। जो किसान दो-तीन हजार रुपए
में भैंस बेचने को तैयार हो जाते हैं, वे उनको दस हजार रु. तक का मूल्य
दे देते हैं। उक्त भैंस पुन: ब्याने पर दूध देना शुरू कर देती है। लेकिन सवाल है इस
प्रकार के कितने डॉक्टर विनोद कुमार देश में हैं? दु:ख की बात तो यह है कि इन भैंसों को माँस के लिए काटने पर भारत सरकार अनुदान
देती है। जिसका सीधा दुष्प्रभाव दुग्ध उत्पादन पर पड़ता है।
हरियाणा की मुररा भैंस दूध के मामले में विश्व विख्यात है। पिछले दिनों उस पर चीन
की नजरें पड़ीं। वे इसे यहाँ से तस्करी द्वारा ले गए। अब चीन में उन पर नए प्रयोग हो
रहे हैं। वे भी डाक्टर विनोद कुमार के मार्ग पर अग्रसर हैं। चीन का मानना है कि भारतीयों
के घरों में घुसना है तो उन्हें सस्ते दूध की आपूर्ति करो। यदि हमारी भैंसें मांसाहारियों
का कौर बनती रहीं तब तो कृष्ण के इस देश को दूध की खोज "बीजिंग" में जाकर
करनी पड़ेगी। "दी केटल साइट लेटेस्ट न्यूज" पर 17 दिसम्बर, 2008 को जारी समाचार में यह मांग की गई है कि भारत गोमाँस का
उत्पादन बढ़ाए। उसकी भविष्यवाणी है कि गोमाँस के निर्यात में भारत को अनिवार्य रूप
से प्रतिवर्ष 5 प्रतिशत की दर से वृद्धि करनी पड़ेगी। फिलहाल विश्व स्तर पर भारत का
माँस के निर्यात में तीसरा स्थान है। नि:सन्देह परिस्थिति चिंताजनक हो चुकी है।

जय हो...
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